संदेश

दिसंबर, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इन जूतों ने बहुत सहा हैं

इन जूतों ने बहुत सहा हैं, रास्तों का अपमान भी, लगे पत्थर ठोकरें जब, टूटे बहुत अरमान भी। चलना निःसन्देह पथ पर, जुदा हो अगर ख़्वाब भी, पलकों ने झुकके देखा होगा, परतों के गहरे घाव भी। इन जूतों ने बहुत सहा हैं, रास्तों के अपमान भी। सही दिशा में चल पड़ा, राही का अभिमान भी, रूक गया यदि राहों पर, होगा मेरा उपहास भी। सुना हैं चमकते जूतों पर, मोतियों का साथ भी, जड़ जाएँ मनका इस पर, लाखों में खास भी। रंग बिरंगा मेरे साया, सबका मिले प्यार भी, फट जाऊं आधे पथ पर, सड़क किनारे उतार दी। मैं झुलसा खुद से खुद, वार्डरोब की आग भी, जिसके पग में चढ़ जाऊं, अनंत मिले सम्मान भी। इन जूतों ने बहुत सहा हैं, रास्तों का अपमान भी। खुली निगाहें मुझ पर टिकी, पृष्ठभूमि ना नाम भी, जिसके सिर पड़ जाऊं, मृत्यु से बड़ा अपमान भी। मैं कवच हूँ पैरों का, काँटे न चुभे कंकाल भी, इन जूतों ने बहुत सहा हैं, रास्तों का अपमान भी।। @कवि लिकेश ठाकुर

मैं हूँ फूल बग़ीचे का

मैं हूँ फूल बगीचे का मैं हूँ फूल बगीचे का,, मेरी महक सबकों भाएँ, मेरा खिलना सबकों सुहाएं, मैं अर्द्ध पूरा थोड़ा खिला सा, भोरें तितली के मन को भाएँ। मैं हूँ फूल बग़ीचे का,, खुशबू से मनमुग्ध घटाएँ, बगीचे में प्यारी जनता आएँ, कली कोमल जो टूट जाएँ, मेरी पीड़ा कोई समझ न पाएं। मैं हूँ फूल बगीचे का,, जीवन मुझसे सीख जरा तू, इक पल जीके मैं झड़ा हूँ, मेरे आगोश में बैठे जोड़ो को, कोई अपना सा मैं लगा हूँ, गिरता,खिलता हो जाएँ सवेरा, नये कोपल में ढलें शरीर मेरा, मैं हूँ फूल बगीचे का ,, रोज मद्धम समीर की छुवन, मुझे मदहोश करती हैं, मैं भी इक अहसास जमीं पर, इत्र बन उसे मदहोश करता हूँ। मुझ कों धूल गले लगाएँ, आकर मुझसे लिपट जाएँ। वीर हो या प्रभु हमारे, उनके शीश पर मैं इठलाऊँ। मैं हूँ फूल बगीचे का,, ना ख़लिश न शिकायत, काटे मुझे हर पल बचाएँ। तोड़ मरोड़ के माली मुझकों, माला सी कर उन्हें पहनाएं। नारी के केशों की हूँ शोभा, मैं गिरूं वहाँ पर हमेशा, जिस पथ वीर अनेकों जाएँ। मैं हूँ फूल बग़ीचे का।। कवि लिकेश ठाकुर

मेरे पापा

मेरे पापा मुझे आसमान में उड़ना हैं, हवाई जहाज ला दो पापा, मुझे चाँद को पकड़ना हैं, थोड़ा ऊँचा उठा दो पापा। मुझे घोड़े पर बैठना हैं, घोड़ा बन जाओ मेरे पापा। मुझे खिलौने ख़रीदना हैं, गाड़ी से घुमा दो पापा। मुझे बुखार हो रहा हैं, हॉस्पिटल ले चलो पापा। मुझे बहुत दर्द हो रहा हैं, पैर सर दबा दो मेरे पापा। मुझे अच्छे कॉलेज में पढ़ना हैं, फीस जमा कर दो पापा। अपनी इक्छा को दबा कर, नई गाड़ी दिला दो पापा। बनूगा बुढ़ापे का सहारा, विश्वास करो मेरे पापा। अब बड़ा हो गया हूँ, दुल्हन दिला दो मेरे पापा। आँसूओ को क्यों छुपा लिया, थोड़ा आँसू बहा दो पापा। जोड़े तुमने पैसे पाई-पाई, खुशियों में उड़ा दिया मेरे पापा। याद हैं बचपन की रातें, अपनी नींद उड़ायी मेरे पापा। खुद सोते गीले बिस्तर पर, मुझे पर रज़ाई उड़ाई मेरे पापा। कितना तुमने त्याग किया हैं, कैसे ऋण चुकाऊँ मेरे पापा।। कवि लिकेश ठाकुर

दर्द सबकों होता हैं

दर्द सबकों होता हैं कोई यहाँ सुकून के आँसू बहाता हैं, तो कोई यहाँ गम में चूर हो जाता हैं। मिलते ही पराये यहाँ अपना हो जाता हैं, कोई नम आँखों से झूठा मुस्कुराता हैं। अंजान बनते यहाँ दर्द सबकों होता हैं। कोई ज़ख्म छुपाता मरहम कोई लगाता हैं, मिलते ही साथ किसी का वक़्त कट जाता हैं। हवाओं सी किसी की राहें जुदा हैं, किसी को मानता कोई शख्स ख़ुदा हैं। झुठी आस कहीं मिलती दिलासा हैं, उड़ते पँछी से सपनों की आशा हैं। कितना भी कोई क्यों न छुपाता हैं, इंसान सभी यहाँ दर्द सबकों होता हैं। likesh thakur

मेरे भारत भाग्यविधाता

हे मेरे अन्नदाता, मेरे भारत भाग्यविधाता। तुझसे ही संसार की मूरत, लोगों की हँसती सूरत। दाने-दाने करें ढेर इकट्ठा, गरीब अमीर का चूल्हा जलता। तेरे हाथों में अद्भुत जादू, बंजर भूमि को कर दे पकाऊ। समर्थ पसीना तेरे तन का, मिट्टी बने सोना जड़ित मनका। रूखी रोटी खाये पहने धोती छोटी, फिर भी अच्छे से पचती रोटी। हे मेरे अन्नदाता, मेरे भारत भाग्यविधाता। दर्द हारे सुर्ख़ पसीना, तेरे द्वार पर ना कोई भूखा। तेरे सपनें खुले आसमान से, दिखते साफ बड़े अरमान से। बच्चे तेरे तेरी दुनिया, मिट्टी में खेले तेरी मुनियाँ। पत्नी तेरी दुःख में साथ निभाये, हाथ पैर दर्द करे जब पैर दबाएं। तुझसे धरती की हैं सुंदरता, कायाकल्प तू प्रकृति अभियंता। हे मेरे अन्नदाता, मेरे भारत भाग्यविधाता।। कवि लिकेश ठाकुर  

चाय

चाय आओं हुजूर कभी,पीने कड़क चाय। बैठे संग मस्ती में,मन की करे बात। सौ बातों से बेहतर,बड़ी आपकी राय। आओं हुजुर कभी,पीने कड़क चाय। करीब आने का ज़रिया,पी ले थोड़ी चाय। कुछ अलग बात है,इन चुस्कियों का राज। चौपालों की शान हैं,गरमा गरम ये चाय। अजनबी मिले एक हुए,मन में भरे उल्लास। आओं हुजूर कभी,पीने कड़क चाय। पल में काम बन गया,नीदों की सुरसुराहट। मद्धम बारिश में भींगे,पिये अदरक की चाय। इक कप चीनी संग,बढ़ता हैं मेल मिलाप। रात हो या हो सुबह,ट्रेनों में बिके चाय। माँ नानी दादी बनाती,कड़क गरम चाय। आओं हुजूर कभी,पीने कड़क चाय।। @लिकेश ठाकुर

ऐ ख़ुदा तेरी तस्वीर के इक

ऐ ख़ुदा तेरी तस्वीर के इक पहलू जैसे मेरे पिता-मैया। जब दुख दर्द मुझे होता तो, छिप चुप रोती मेरी मैया। अरे दुनिया तो निकालती हैं, सब में कुछ न कुछ कमियां। माँ में ममत्व का संसार बसा, डाँटती पुचकारती मेरी मैया। जैसा भी हूँ उसका अंश हूँ। दादा-पिता का आगामी वंश हूँ। मैं एक जरिया प्रेम संसार का, बहती कश्ती का खेवइया। तुम हो मधुर राग दोहा,सवैया, वात्सल्य विराट मूरत मेरी मैया। क्षीर दाता तुझ सा कोई नहीं, तेरे बिन अधूरे ख़्वाब मेरी मैया। सजदे किये बहुत ईश चरणों में, तुमसा कोई दूजा ना पिता-मैया। तुमसे ही सुख सुकून सम्रद्धि, पिता लगाए भव पार मेरी नैया।। ऐ ख़ुदा तेरी तस्वीर के इक, पहलू जैसे मेरे पिता-मैया।। कवि लिकेश ठाकुर

माँ

माँ के सामने रूठने से, असीम ममता तो मिलती है। दुनिया के सामने खिलने से, ख़ुद की कमियां तो दिखती हैं।।

इश्क़ की आग में

इश्क़ की आग में,ख़ुद को जलाना पड़ा, अश्क भरें नयनों को,दर्द से झूझाना पड़ा। तू मेरी मैं तेरा इश्क़,सबको बताना ही पड़ा। खोके दिल का चैन,कुछ पल सुकून भरा। देती दुहाई तू मुझकों,ख़ुद मुझे कहना पड़ा। तू वफ़ाओं की रंजिश,तीर खंजर सा लगा। कह तू देती हँसते,क्यों वफ़ाई करना पड़ा। आरजू वादों के लिए,तुझे लड़ना पड़ा। साँझ तेरी महफ़िल में,मुझे आँसू बहाना पड़ा। रूठी चाँदनी को जगा,मुझे मनाना पड़ा। वादा सर्द में किये,बारिश तक निभाना पड़ा। कितने सावन भादों,तुम बिन बिताना पड़ा। बेहोशी में ख़ुद को,तेरे लिए जगाना पड़ा। बेपरवाह मेरी तन्हाई को,समझाना पड़ा। इश्क़ की ये इम्तेहां हैं,ख़ुद को गवाना पड़ा। चार दिन की ज़िंदगी हैं,मुझे मनाना पड़ा।।

दो पल के जीवन में

दो पल के जीवन में, एक उम्र चुरानी हैं। छोड़ो कुछ शिकायतें, ये तो बात पुरानी हैं। मिटालो शिकवें गीले, मिली इक ज़िंदगानी हैं। खोजने से भी न मिले, अपनी यादगार कहानी हैं। रोना नहीं हैं यादों में, दिल से बनी रूहानी हैं। साथ चलो एक कदम, आगे पूरी ज़िंदगानी हैं। महसूस कर देखा तुझकों, तू चाँदनी सी दीवानी हैं। दो पल के जीवन में, एक उम्र चुरानी हैं।।

काश! तुमसे

काश! तुमसे, रोज मुलाकात होती, सर्द हवाओं सी रातों में, थोड़ी तुम ठिठुरती अपना कम्बल मैं  तुम्हें ओढ़ा देता, साथ कुछ गुफ्तगू की, इजाजत मुझे होती, सुर्ख़ तेरे नयन मेरे, मनमीत हसरत पूरी होती। काश! किसी मोड़ से, तुम पैदल गुजरती, पैरों की पायल की खनक, मेरे कानों तक पहुँचती। हो शाम जब भी, तेरे दीदार को छत पर आए, अब छत ऊँची हो गई, देखू तो शायद नजर आए। तुमसे मिलने के बाद, उम्मीदों के कटती तन्हा रात। कुछ बात अपनेपन की, मुझे कभी-कभी तड़पाये, तुझे खोने के डर से, रातों में नींद ना आये।। @लिकेश ठाकुर

चंचल चाँदनी सी

चंचल चाँदनी सी, तुम घर से निकलती हो। मदमस्त हवाओं सी, तुम पँछी सी चहकती हो। रूह की परछाई सी, तुम शमा महफ़िल हो। अनजाने ख्वाबों सी, तुम मुझमें ढ़लती हो।। @लिकेश ठाकुर

घर, घर अब नहीं रहे

घर,घर अब नहीं रहे, कहीं खोते रिश्ते,अपने अब नहीं रहे। वो बुजुर्गों की संगत,अपने दूर हो रहे। स्वर्ग सा सुंदर घर,अब ये उजड़ रहे। दादा-दादी की ममता,बालपन से बिछड़ रहे। बापू की पीठ न बैठ कर,मेलों के झूला झूल रहे। खो गई मेले की रंगत,मॉलों में दिन गुजार रहे। वो पड़ोसियों से न मतलब,दूर से बस झांक रहे। घर,घर अब नहीं रहे। बिताये वक्त साथ कब,फोन में हाल पूछ रहे। जाते थे नाना-नानी के घर,शिमला मनाली जा रहे। घर की कलह अब,वाणी में उतार रहे। तब भाई,भाई एक था,खुद पराये हो रहे। माँ बाप की आस पुत्र तो,कुपुत्र पैदा हो रहे। खुद मज़े में रहकर,जन्मदाता भूखे रह रहे। बेटियों पर पाबंदी तो,बेटे शहर में घूम रहे। घर,घर अब नहीं रहे। ऊँची आवाज़ तेज़ सी,सास बहू तंज कस रहे। बच्चों का हक़ प्यार है,नफरत का बीज बो रहे। एकल हो गया घर परिवार,रिश्तेदार दूर हो रहे। मतलबों के खेल-खेल में,लोग भाव शून्य हो रहें। घर,घर अब नहीं रहे।। कवि लिकेश ठाकुर घर अब घर नहीं रहे। #घरनहींरहे #collab #yqdidi  #YourQuoteAndMine Collaborating with YourQuote Didi   Read my thoughts on YourQuote app at https://www.yourquote.in/likesh-thakur-saqw/quotes/

गैस त्रासदी की वो रात

गैस त्रासदी की वो रात, गैस त्रासदी की वो रात, भूला नहीं कोई वो बात, अपने साँसों की जतन में, फिरे शहरों में काँपते हाथ। बहुत दुखद कातिल वो रात, किसी ने नहीं पूछा था जात। दुख की हो रही थी बरसात, अपना छोड़ रहा था साथ। बच्चे बूढ़े गिर रहे थे बेआस, एंडरसन भागा समुद्र पार। किसी के सपनें टूटे धड़ाम, दौड़ रहा था लाचार बाप। कोई मूर्छित कोई विकलांग, बेदर्द पीड़ा शहर बर्बाद। बहुत जतन से उठा भोपाल, स्वच्छता इसकी बेमिसाल।  कोरी साजिशें दफ़न हो गई, यूनियन कार्बाइड मौत का जाल। बेमौत मरता माता का लाल, कहर उठा ठंड में भोपाल। अब तक वीरां वो जहां है, जख्म ना भरी वो दास्तान। तीर्व उन्नति का था प्रतिकार, कैसे फैला ये विष विकार। चौखट में मौत करती रही, मासूमों का निर्मम इंतेजार। रातों में ओझल होते अपने, मासूम खोज रहा अपनी माँ। गलती एक की भूगते सबने, हीर रांझा के टूटे थे ख्वाब। असहनीय पीड़ा गम अंजान, अब भी पीड़ित आम इंसान। गैस त्रासदी की वो रात, भूला नहीं कोई वो बात।। कवि लिकेश ठाकुर