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वजह कुछ भी नहीं थीं

वजह कुछ भी नहीं थी,ज़िंदगी यूँ ही रूठी थी। कुछ पाने की चाहत में,मैंने बहुत राते जगी थी। अपनों को खोते देख,सपनों से करी दोस्ती थी। निभाते चले रिश्ते,कुछ रिश्तों की डोर कच्ची थी। वजह कुछ भी नहीं थी,ज़िंदगी यूँ ही रूठी थी। ख़ुद से लड़ते-लड़ते,कहीं मेरी हस्ती खो चुकी थी। निकले थे अनजान सफ़र में, ख़ुदसे दोस्ती हो चुकी थी। गिरि के तरह डाटे थे,मदहोश आँधी चल रही थी। अंबर में काली घटाएं,प्रभा सी  चमक रही थी। कोई यहाँ अनुज सखा,तरु की छांव मिल रही थी। वजह कुछ भी नहीं थी,ज़िंदगी यूँ ही रूठी थी। बसन्त के मधुर बहारों में,कुछ कलियां खिल रही थी। बारिश की भीगीं रातों में,बिजली कड़क रही थी। तरकस से निकला तीर,कुछ  ज़िंदगी सीखा रही थी। बेवजह की उलझनों में,मेरे मन को फंसा रही थी। कभी दिन के उजालों में,यूँही सपनें दिखा रही थी वजह कुछ भी नहीं थी,ज़िंदगी यूँ ही रूठी थी। ✍️रचना-लिकेश ठाकुर *गिरि-पर्वत *प्रभा-प्रकाश *अनुज-भाई *सखा-दोस्त *अंबर-आकाश *मेघ-बादल

रूठी चाँदनी को मैं मना लू

ये ढ़लती हुई शाम! रुक जरा तू, कुछ अधूरे काम निपटा लू, आकर तेरे आग़ोश में, थोड़ा ठहर मैं मुस्कुरा लू। चाँद निकलने को बेकरार, रूठी चाँदनी को मैं मना लू। जाने दे बिंदास पँछी को, दिल के कोने में महफ़िल सजा लू। रक्त वर्णीत रंगीन फ़िज़ाओं में, रूठी चाँदनी को मैं मना लू। ये ढ़लती हुई शाम! बहुत मोहब्बत करती तू चाँद से, ढलने को इतनी बेकरार तू। रुक जा अब थोड़ी देर तू, तेरे लिए रोशन इक़ जहां बना दू। थोड़ी तपिस झीलों की ठंडक में, रूठी चाँदनी को मैं मना लू।। मन के तहखाने में समायी, कुछ यादों को साथ लाऊं। मैं हर रोज़ करूँ रब से ईबादत, सुर्ख़ आँखों से ख़्वाब सजाऊँ। रूक कुछ देर,मिलने की चाहत हैं, रूठी चाँदनी को मैं मना लू।।  ✍️लिकेश ठाकुर