काश! तुमसे

काश! तुमसे,
रोज मुलाकात होती,
सर्द हवाओं सी रातों में,
थोड़ी तुम ठिठुरती
अपना कम्बल मैं 
तुम्हें ओढ़ा देता,
साथ कुछ गुफ्तगू की,
इजाजत मुझे होती,
सुर्ख़ तेरे नयन मेरे,
मनमीत हसरत पूरी होती।

काश! किसी मोड़ से,
तुम पैदल गुजरती,
पैरों की पायल की खनक,
मेरे कानों तक पहुँचती।
हो शाम जब भी,
तेरे दीदार को छत पर आए,
अब छत ऊँची हो गई,
देखू तो शायद नजर आए।
तुमसे मिलने के बाद,
उम्मीदों के कटती तन्हा रात।
कुछ बात अपनेपन की,
मुझे कभी-कभी तड़पाये,
तुझे खोने के डर से,
रातों में नींद ना आये।।
@लिकेश ठाकुर

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