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*एक अटल अमर दीप*

*एक अटल अमर दीप* चाह नही जलना फिर भी, जलकर में डटा हुआ। राह नहीं आँधी से लड़ता, बूझकर मैं डटा हुआ। तिमिर होते आतंक के साये से, डर मुझको भी लगता है। जलता हूँ खिलखलाते , तूफान मुझ पर हँसता है। न द्वेष़ भाव मेरे मन मे, यही मेरी सहजता है। इक रात जलता, सौ बार बुझता हूँ। महफ़िल में भी रहकर, आँधी से भी लड़ता हूँ। खोती एक पहचान मेरी, अस्तित्व को पाना चाहता हूँ। होती खामोशी चारों ओर, सिसक सिसक के रोता हूँ। चाह नही जलना फिर भी, जलकर मैं डटा हुआ। राह नही आँधी से लड़ता, बुझकर मैं डटा हुआ।।       रचनाकार      लिकेश ठाकुर

माँ मैं बड़ा क्यों हो गया।

*माँ मैं बड़ा क्यों हो गया* माँ मैं बड़ा क्यों हो गया, शिशु बन जाऊं एक बार। बीता समय शिशु से यौवन, आज नही पल-पल का साथ। बड़ा हो गया हूँ फिर भी, मन रहता हरवक्त साथ। आँचल में सोने का मन करता, निष्फ्रिक अब रहता मेरा काम। बाते बताता दिन रात पर, नही समय है मेरे पास। माँ मैं बड़ा क्यों हो गया, शिशु बन जाऊ एक बार। याद है जब तेरी लोरी, सुला देती जब मधुर दुलार। तू शारदा कमलासना, अम्बा तुझमें करूणा अपार। प्रभा मेरे जीवन की वसुधा, माँ तू ईश्वर का उपहार। माँ मैं बड़ा क्यों हो गया, शिशु बन जाऊं एक बार। माँ तू सन्दूक की चाभी, घर को कर दिया निस्तार। सुरसरिता सी लहरों से, पावन तेरी ममता का गान। क्रोध भी लगता झूठा, जब लगा लेती प्रेम नीहार। माँ मैं बड़ा क्यों हो गया, शिशु बन जाऊं एक बार। माँ यमुना सी लहरों सी, खिलती नर्मदा सी बहार। श्रद्धा की शक्ति चेतना, रोदन करुणा वेदना अपार। दुबके दुबके खेल खिलाती, गुड़िया मुनी का करती श्रंगार। माँ मैं बड़ा क्यों हो गया। शिशु बन जाऊं एक बार। बनी शक्कर सी चाशनी, ममत्त्व भूधर सा अपार। पोटली चने खुद न खाती, खोले गाँठ मुझे खिलाती। उथल पुथ