मैं हूँ फूल बग़ीचे का

मैं हूँ फूल बगीचे का

मैं हूँ फूल बगीचे का,,
मेरी महक सबकों भाएँ,
मेरा खिलना सबकों सुहाएं,
मैं अर्द्ध पूरा थोड़ा खिला सा,
भोरें तितली के मन को भाएँ।
मैं हूँ फूल बग़ीचे का,,
खुशबू से मनमुग्ध घटाएँ,
बगीचे में प्यारी जनता आएँ,
कली कोमल जो टूट जाएँ,
मेरी पीड़ा कोई समझ न पाएं।
मैं हूँ फूल बगीचे का,,
जीवन मुझसे सीख जरा तू,
इक पल जीके मैं झड़ा हूँ,
मेरे आगोश में बैठे जोड़ो को,
कोई अपना सा मैं लगा हूँ,
गिरता,खिलता हो जाएँ सवेरा,
नये कोपल में ढलें शरीर मेरा,
मैं हूँ फूल बगीचे का ,,
रोज मद्धम समीर की छुवन,
मुझे मदहोश करती हैं,
मैं भी इक अहसास जमीं पर,
इत्र बन उसे मदहोश करता हूँ।
मुझ कों धूल गले लगाएँ,
आकर मुझसे लिपट जाएँ।
वीर हो या प्रभु हमारे,
उनके शीश पर मैं इठलाऊँ।
मैं हूँ फूल बगीचे का,,
ना ख़लिश न शिकायत,
काटे मुझे हर पल बचाएँ।
तोड़ मरोड़ के माली मुझकों,
माला सी कर उन्हें पहनाएं।
नारी के केशों की हूँ शोभा,
मैं गिरूं वहाँ पर हमेशा,
जिस पथ वीर अनेकों जाएँ।
मैं हूँ फूल बग़ीचे का।।
कवि लिकेश ठाकुर

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