घर, घर अब नहीं रहे
घर,घर अब नहीं रहे,
कहीं खोते रिश्ते,अपने अब नहीं रहे।
वो बुजुर्गों की संगत,अपने दूर हो रहे।
स्वर्ग सा सुंदर घर,अब ये उजड़ रहे।
दादा-दादी की ममता,बालपन से बिछड़ रहे।
बापू की पीठ न बैठ कर,मेलों के झूला झूल रहे।
खो गई मेले की रंगत,मॉलों में दिन गुजार रहे।
वो पड़ोसियों से न मतलब,दूर से बस झांक रहे।
घर,घर अब नहीं रहे।
बिताये वक्त साथ कब,फोन में हाल पूछ रहे।
जाते थे नाना-नानी के घर,शिमला मनाली जा रहे।
घर की कलह अब,वाणी में उतार रहे।
तब भाई,भाई एक था,खुद पराये हो रहे।
माँ बाप की आस पुत्र तो,कुपुत्र पैदा हो रहे।
खुद मज़े में रहकर,जन्मदाता भूखे रह रहे।
बेटियों पर पाबंदी तो,बेटे शहर में घूम रहे।
घर,घर अब नहीं रहे।
ऊँची आवाज़ तेज़ सी,सास बहू तंज कस रहे।
बच्चों का हक़ प्यार है,नफरत का बीज बो रहे।
एकल हो गया घर परिवार,रिश्तेदार दूर हो रहे।
मतलबों के खेल-खेल में,लोग भाव शून्य हो रहें।
घर,घर अब नहीं रहे।।
कवि
लिकेश ठाकुर
घर अब घर नहीं रहे।
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