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सर्द हवाएं

सर्द हवाऐ ये सर्द हवाऐ, रूक जरा तू!! ओढ़ लू  कुछ गर्म कपड़े, बहती बड़े शिद्दत से तू, काँपते मेरे फेफड़े। सांस लेने में कठिनाई, सर्द तू बहुत मुझमें समाई। छोड़ ना पाऊं मैं रजाई, सबके हैं यहीं दुखड़े। बूढ़ों को तुम तंग करती, बच्चों के फटते मुखड़े, ठंडा पानी लगता बर्फ़ सा, घास में सजी ओंस की बूंदें। ये सर्द हवाऐ रूक जरा तू!!

इन आँखों में सिर्फ़

इन आँखों में सिर्फ,इक वहीं बसी है, वो मेरी महबूबा नहीं,मेरी मंज़िल बसी है। राहे बहुत कठिन है उससे मिलने की, उसके दीदार को,आँखे दिन-रात जगी है। इन आँखों में पहली मूरत,मेरे सांसों में बसी है, वो मेरा पहला प्यार मेरा,अहसास मेरी माँ बसी है। बहुत दूर है ये आजमाइस, तेरे आँचल में सजी है, रहगुज़र मेरे जीवन की,मेरे लिये रात जगी है। इन आँखों में दीवाली की, फुलझड़ी बसी है। वो आँखो के आँसू से,भीगीं पड़ी है। याद उसको भी आती,मुझकों भी आती हैं, पर आँसू छुपा कर,माँ ईश्वर से भी बड़ी है। वफ़ा वक़्त से,लड़ाई मैंने लड़ी है, वो अरमान नहीं,इक समय की कड़ी है। इन आँखों में सिर्फ,इक वहीं बसी है, वो मेरी महबूबा नहीं,मेरी मंज़िल बसी हैं।।

अब कोई गिला नहीं

अब कोई गिला नहीं, ओंठो को सिला नहीं, मनभेद तो हो जाता है। करकें मिन्नतें अपनों से, सबसे प्यारा रूठ जाता है। रोग शिकायत का लगा नहीं, शिकवा मन में पला नहीं, समझा-समझाकर इंसान, कुछ वक़्त बाद थक जाता है। दिखाये खुद को कठोर, चेहरा में नकली हँसी, अँधेरो से कभी डरा नहीं, साथ छूटे तो टूट जाता है। कितना भी झूठ कहे, यादों में मुरझा जाता है, चेहरे पर मुस्कान झूठी हो, मन बेचैन दिख जाता है। तेरी अहमियत महफ़िल में, दिल में आग लगा जाता हैं। नादान परिंदे से फड़फड़ाते, दिल मेरे तू तड़पाता है। कहना चाहे बहुत कुछ, बहुत कुछ छुपाता है, कोई गिला हो तेरे दिल में, बोल ज़ुबान पर क्या?आता हैं। सच निकले या झूठ निर्मोही, बोल कुछ तेरा क्या?जाता हैं। अब कोई गिला नहीं, ओंठो को सिला नहीं, मनभेद तो हो जाता है। करकें मिन्नतें अपनों से, सबसे प्यारा रूठ जाता है।। ✍️कवि लिकेश ठाकुर एक दिन शिकवा शिकायत से भी इंसान थक ही जाता है।

दीपावली का त्यौहार

दीपावली का त्यौहार ख़ूब मस्ती,दादी हँसती, होती चेहरे पर मुस्कान। छिपा बुढ़ापे की झुर्रियां, दादा-दादी लगें जवान। सालभर में एक बार आता, दीपावली का त्यौहार। अम्मा नानी जोर से हँसती, नाना-नानी लगें जवान। मौशी बच्चे झूला झुलाती, बच्चों के चेहरे पर मुस्कान। सालभर में एक बार आता, दीपावली का त्यौहार। घर की होती साफ सफाई, आये धन की घर में बहार। गुड्डा गुड़ी का खेल खेले, खिले नन्हें-मुन्ने की मुस्कान। फोड़ फाटका शोर न करना, जाग ना जाये बेजुबान। सालभर में एक बार आता, दीपावली का त्यौहार। रूठे हुए को जब मानते, गले लगा सब मुस्कुराते। नये रंग बिरंगे कपड़ो में, रंगोली से जब घर सजाते। घनघोर अँधेरा अमिट छाप, आसमान में दीये जगमगाते। भूल भेद सिख मुस्लिम का, आपस में सब गले लगाते। सालभर में एक बार आता, दीपावली का त्यौहार। कवि लिकेश ठाकुर https:-//likeshthakur.blogspot.com

मन के रावण को आज तक

पुतलों के ही दहन का, बढ़ने लगा रिवाज। मन के रावण को आज तक, जला न सका समाज। अत्याचार की आँधी से, बच न सका इंसान। लोहित शस्त्र से ख़ुद को, मारने लगा ईमान। सच्ची घटना अनजान कर, फैला रहा अंधविश्वास। मन के मर्म को मार कर, आगे बढ़ने लगा इंसान। संकीर्ण सोच आग़ोश कर, करने लगा भेदभाव। मन के रावण को आज तक, जला ना सका समाज।। ✍️लिकेश ठाकुर

दसमुख रावण मन

दसमुख रावण मन, मुखुटे कब हटाओगे, मन में कुंठा पाल के, ख़ुद कब हर्षाओगे। जो नसीब में लिखा, शून्य सा बैठ जाओगे। सुरमयी पथ निर्माण का, कब स्वप्न सजाओगे। दर्द रात की बेबसी को, ख़ुद कब भगाओगे। चीर हरण नयनों से होते, शुद्धि मन कब लाओगे। अच्छाई में भरी बुराई, कब तक छुपाओगे। भरके झूली अपनी काके, बच कहाँ जाओगे। नजरें लगीं है लोगों की, रावण सा मर जाओगे। दसमुख रावण मन, मुखुटे कब हटाओगे जाग चुकी नारी शक्ति को, अब तुम जगाओगे। ईर्ष्या द्वेष भरे मन को, निग्रह मुक्त कराओगे। छिप बैठा रावण मन में, कब मुक्त कराओगे। कुंभकर्ण नींद से जागे, कब तक ढोल बजाओगे। अत्यारूढ़ि क्रोध मन से, विनिर्बन्ध कब लाओगे। दसमुख रावण मन, मुखुटे कब हटाओगे। ✍️कवि लिकेश ठाकुर आप सभी को विजय दशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ। रावण के पुतले का दहन तो बहुत सरल है किंतु (दशहरा - दश का हरण) अत्यधिक कठिन कार्य है।

कैसी उधेड़बुन है,मन की अजीब धुन हैं।

कैसी उधेड़बुन है,मन की अजीब धुन है। चलते रहना ज़िन्दगी,तुझमें बड़ा सुकून है। खो चुकी आस तो,दिल क्यों?मजबूर है। मिले जो रास्ते में,ज़िन्दगीका सफर शुरू है। दर्द के साये है,ग़मों के भरें दस्तुर है। थकने लगी आँखे तो,पलकें भी मजबूर है। कैसी उधेड़बुन है,मन की अजीब धुन है। कोरा कागज़ निर्मम,अधीर हर शख्स है। बेख्याली मन की,अंगारे से विचल है। धाक पूरी फ़ैली,दहकती अजीब धुन है। रोग लगा तन में,ये तन भी बेबस हैं। ज़िन्दगी तुझसे हम,तुझसे ही कल है। कैसी उधेड़बुन है,मन में अजीब धुन है। चलते रहना ज़िन्दगी,तुझमें बड़ा सुकून है।। कवि लिकेश ठाकुर

तेरे नयनों पर किया भरोसा

तेरे नयनों पर किया भरोसा, दोनों ही झूठे निकले। लबों की हो गयी धोखेबाज़ी, सपनें भी कोरे निकले। फ़िदा हुये तेरे हँसने पर, चेहरे के भाव नकलीनिकले। अश्कों से बहती हुयी धारा, ग़म हवाओं से गैर निकले।। तेरे नयनों पर किया भरोसा, दोनों ही झूठे निकले। कवि लिकेश ठाकुर

रावण अब मरेगा

रावण अब मरेगा हो चुका उदघोष यहाँ पर, रावण अब मरेगा, करके अपनी मनमानी से, रावण अब जलेगा। राम राज की शुरुआत पर, जाति भेद हरेगा। कितने झूठे-झूठे वादे से, दिल कब पसीजेगा। केवट सा कोई मिले खेवैया, हनुमान सा मिलेगा। जुर्म यहाँ पर शान्ति पथ पर, कोई यहाँ चलेगा। राम सा मर्यादा पुरुषोत्तम, यहाँ अब मिलेगा। मन में छिपा रावण का पुतला, हर मन से मरेगा। कलयुग में कर्मयोग का, पीड़ा कोई हरेगा। हो चुका उदघोष यहाँ पर, रावण अब मरेगा। बेबसों को सहारा देकर, कोई साई बनेगा। हो घमंड भरा अंतर्मन में, रावण अब मरेगा।।

कौन समझें दुख हमारे

कौन समझें दुख हमारे कौन समझें दुख हमारे, कहाँ खो गए पालनहारे। मीरा दीवानी,राधा पुकारे, सास्वत मूरत ईश्वर हमारे। द्वार में आऊँ साँझ सकारे, मन्नतें माँगे हम भक्त तुम्हारे। तुम ही अल्लाह यीशु हमारे, जीवन में भरे तू उजियारे। साहस मन में तुम्हीं तो डाले, गिरते अरमान तू ही संभाले। तुम ही साथी तुम्हीं सहारे, अदभुत शक्ति चरण पखारे। माँ तू जननी दुख को हारे, मानवता तू इंसान में बसाऐ। तुम ममता तेरे हम प्यारे, जल्दी से आ मन ना हारे। कौन समझें दुख हमारे, कहाँ खो गए पालनहारे। ✍️लिकेश ठाकुर

यूँ ही तन्हा जीने से

यूँ ही तन्हा जीने से,उदासी कम नहीं होती, राह गुज़र जाने से,परेशानी दूर नहीं होती। कठोर तप्त हौसलों की,उड़ान नहीं रुकती, शार्गिद बन सीखने से,कमान नहीं रूठती। साधनों के तालमेल से,आँखे नहीं थकती, जो भी मिले हल से,मेहनत व्यर्थ नहीं होती। कायरों के बाजु से,तरकस नहीं निकलती, रूठ जाये ज्ञान तो,सरस्वती नहीं प्रखरती। मधुर स्वर सुनाने से,सीरत नहीं बदलतीं, बनावटी चरित्र से,सूरत सर्वत्र नहीं शोभती। रंग के उल्लास से,ज़िन्दगी नहीं सुधरती, नशा हो पैसों का,सुकून की नींद नहीं होती। दौड़ भाग ज़िन्दगी से,पीठ सीधी नहीं होती, नोटों पर लेटने से,उम्र दिर्घायु नहीं होती।। यूँ ही तन्हा जीने से,उदासी कम नहीं होती, मंजर गुज़र जाने से,परेशानी दूर नहीं होती।

देखो!देखों!! मेरे महात्मा गाँधी

देखों!देखो!! मेरे महात्मा गाँधी, देश में चल रही, विकास की आँधी, कोई शेर आ गया है, आप सा ही हैं गुजराती। तेज इंटरनेट और अभिव्यक्ति की आज़ादी, शांत है जन्नत अब कश्मीर की वादी। देखो!देखो!! मेरे महात्मा गाँधी, खुले में शौच मुक्त है, देश की पूरी आबादी। दुनिया भी मान गयी है, भारत बिना महफ़िल आधी। क्षमाशील मातृभूमि है, नहीं सुधरा रहा पाकिस्तानी, रह-रह कर विष उगले, विष की पीते हम प्याली। देखो!देखो!! मेरे महात्मा गाँधी, मासूम न्याय माँग रही हैं, खुले घूम रहे दुराचारी, कितना मुश्किल है सहना, लूट रही कोई बेचारी। क़ानून का तो डर नहीं है, पैसों के नशे में अभिमानी। संत महात्मा ना तेरे जैसे, कुछ यहाँ घूमे बलात्कारी। देखो!देखो!! मेरे महात्मा गाँधी, भूखा भूख से मर रहा है, किसान की मरने की बारी, अंधा धुंध पेड़ कट रहे है, रूकी नहीं कातिल कुल्हाड़ी। देश मेरा बदल रहा है, घर-घर स्कूटर मोटर गाड़ी, धुँआ शोर से दम घुट रहा है, नीर बहे अनंत निधारी। देखो!देखो!! मेरे महात्मा गाँधी, भ्रष्ठी अब कांप रहे है, करते नहीं अब मनमानी। कटे वन उपवन पुकार रहे, देखो सत्तर साल की नादानी।