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जिंदगी तू जिये जा

कविता ज़िंदगी तू जिये जा, मत हार तू हिम्मत। हौसलों के पंखों से, उड़ानों की कर मन्नत। एक दिन जरूर आयेगा, वक़्त तुझे हंसाएगा। रोशनी से हो रूबरू, जो सोचा कर शुरू। ये गम खुशी के कुंड में पहचान बना इस झुंड में। अकेला ही लड़ना पड़ेगा, बाधाओं से निकलना पड़ेगा। चमक सितारों सा गगन में, जी तू ज़िन्दगी मस्त मगन में। कभी हार पर रूक नहीं, मंजिल न  मिले दुख नहीं। खिलखिला मासूम बच्चों सा, चिंतन कर चिंता नहीं। घोल मिठास सुर में, जोश बढ़ा जुनून से। राहे जब भी कठिन लगे, जीतना हर हाल ठान ले। कवि लिकेश ठाकुर

आँसू निकल आते हैं

देख दुर्दशा माँ भारती की, आँखों से आँसू निकल आते हैं, कुछ लोग खाते भारत का, पाकिस्तान की गाते हैं। छल कपट शांत राहों में, बीज नफरत का उगाते हैं, हम तो पिछले कुछ दशकों से, माफ कर उन्हें गले लगाते हैं। तुमसे कोई हमें बैर नहीं, वर्षों से जताते जाते हैं। ज़िहाद फ़रेब का साया ओढ़े, कश्मीर में घुस जाते हैं। सीजफायर का कर उलंघन, घुसपैठ उपजाये जाते हैं। भूखमरी का रोना रोते, मासूमियत खूब जताते हैं। देकर कफ़न नफरतों का, गोले पत्थर फेंकवाते हैं। खुद से कुंठित उगलते विष, अक्सर लताड़े जाते हैं। ✍️✍️लिकेश ठाकुर

पुष्प खिले उपवन में

पुष्प खिले उपवन में, शोभित लिये नवनीत, आशा और निराशा में, इंसान हो रहा भयभीत। धैर्य कर्म के पथ पर, विचलित करें अतीत। वर्तमान को धारण कर, जीवन चिंतन में कर व्यतीत। जैसे होते मास पखवाड़े, दुख सुख की यहीं रीत, खुद से ही क्यों हारे, मन को क्यों करें व्यथित। मालूम हैं चाँद निकलेगा, रातों से उसे है प्रीत, कोमल कलियाँ खिलेगी, गूँजेगा पँछीयों का संगीत। मधुर कोयल की आवाज, प्रकृति हरित सृजित, किरणों का भूमि पर, तीर्व मद्धम आरोपित। लहरों में नौकाओं का, हवाओं का रूख मंदित, पहुंच सकें पुनः तट पर, पतवारें सह उत्साहित नीर। प्रवाह प्रेम अनुराग का, सबको हो अहसास प्रतीत, एकदूजे हम साथ रहे, हो मानव से मानव का मीत। मनभेद व्यर्थ विकार को, हम प्रबलता से करें निरसित। वक़्त अब कैसा भी रहे, बस आपस में ना हो प्रतीप। ✍️लिकेश ठाकुर

हरी घास की चादर ओढ़े

हरी घास की चादर ओढ़े, प्रकृति कर रही श्रृंगार। नीला अम्बर साफ स्वच्छ, नवसृजन का होगा यह साल। स्वतंत्रता महसूस कर रहे, यहाँ पँछी और समाज। धर्मभेद तो सत्ता खेल था, हम तो शतंरज की बिसात। ख्वाहिशें तो बस लड़ाने की, चुप्पी अब साध बैठे जनाब। खुदा का आलय बंद पड़ा, खुला मधुशाला का द्वार। छीन गए गरीबों के सपनें, लौट आए अब अपने गांव। गाँवों में मेरा भारत बसता हैं, कर्जयुक्त मरे अन्नदाता किसान। शुद्ध हवा करती अठखेलियाँ, पवन चले अब सरसराहट, बादलों का मार्ग न विचलित, हिमालय में दिखे किरणें अपार। अब सनातन संस्कृति लौट आयी, सतत उन्नति से विश्व कल्याण। हरी घास की चादर ओढ़े, प्रकृति कर रही श्रृंगार।। ✍️लिकेश ठाकुर