संदेश

मार्च, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तुम क्या जानो हाल हमारा

तुम क्या जानो हाल हमारा, तुमको खोके खुदको जाना रूठ कर क्यों तुम्हें दूर जाना, वापस फिर तुम लौट आना। राह ताकेगी आँखें जब मेरी, आकर मेरे मन में समाना। कोई हकीकत हो या अफ़साना, कोई जुबां पर बात ना लाना, बेवफ़ा रंजिशों से घाव हरा कर, तुम जख्मों में मरहम लगाना। कोई बेरुख़ी मुझसे न करना, वफ़ा की रूत्त में तुम समाना। तुम क्या जानो हाल हमारा, कश्ती को कहीं मिले किनारा। कुछ तो बोलेगा ये जमाना, वापस फिर तुम लौट आना। मिल कर वादे साथ करेंगें, बिछड़ेगे ना कभी हम दुबारा। खो जाये यदि बेदर्द दिल तो, सुर्ख़ अश्को से मुझे रिझाना। बहुत याद तुम्हें हम करते हैं, तुम क्या जानो हाल हमारा।। *बेरुख़ी-नाराज़गी *रूत्त-दामन ✍️लिकेश ठाकुर तुम क्या जानो,हाल हमारा...

अबके बसंत

अबके बसंत यूँ बीत गया, प्यार का मौसम रीत गया। हम बेपरवाह बैठे रहे घरों में, फूलों को भौंरा जीत गया। निहारते रहे खिलते फूलों को, कलियों से हमें प्रीत हो गया। नयन भी हमारे बड़े धोखेबाज़, मौसम से हमें मीत हो गया।।

दिन फूलों के बीत रहे हैं

दिन फूलों के बीत रहे हैं, हम उन्हें पानी सींच रहे हैं, खिलते इक छुवन से मेरे, हवाओं का रुख़ बदल रहे हैं माना कि कुछ दिनों से, हमनें दीदार नहीं किया, वो हमें बीते लम्हों में ढूंढते, हम उन पर किताब लिख रहे। कितने भी हो फासले, खुद को खुद सँभल रहें हैं, बड़ी मग्गरूर थी कलियां, आजकल हमारे दीदार को, क़ातिल उनकी आँखें तरस रहे। दिन फूलों के बीत रहे हैं, हम उन्हें पानी सींच रहे हैं।।

बहुत दिनों के बाद

मिले अपने बैठे संग, बहुत दिनों के बाद, माँ बापू खूब हँसे, ना कोई उदास। माना वक़्त कठिन हैं, बीत जायेगी काली रात। दो मीठे बोल से, घर हो जाये स्वर्ग संसार। सूनी गरीबों की कुटिया, रूका सब व्यापार। अस्पताल में भीड़ हैं, मंदिर मज्जिद सुनसान। मिले अपने बैठे संग, बहुत दिनों के बाद।। https://likeshthakur.blogspot.com

ये ढ़लती शाम हैं

ये ढ़लती शाम हैं, विस्मृत कर देती, इन दिनों की कुछ तस्वीर, दिल में चुभें खंजर, अदृश्य समंजित तीर। फिर भी बड़े शिद्दत से, ये ढ़लती शाम हैं। कोने में बैठ कुछ सोचने लगे, वक़्त के साये में, कुछ खोजते हुए, अब तो अपने अपने हो गये, पूरे दिन-रात के लिए। बड़ी बेचैनी से अब, ये ढ़लती रात हैं। भागम भाग हमनें किये, थोड़ा ठहरे दिखे आज, रुखसत होकर अपनों से, मिलने को तरसते रहे। कब हटेगी पाबंदियां, पूरी रात के लिये। अधूरी ये अंधेरी रात, गमों की बरसात हैं। महफ़िल बहुत सूनी हैं, ये ढ़लती शाम हैं। *रुखसत-अलग  Poet likesh thakur

सूनी सड़के

सूनी सड़के सूनी चौखट, कुंडी लगी हैं दरवाजे में, इंसान ख़ौफ़ में जी रहा हैं, इक वायरस के आ जाने से। इक अपील में जाग गए, लोग लगें देशभक्ति निभाने में, निःस्वार्थ भाव से लगे हैं लोगों, गरीबों की कुटिया सजाने में। शांत मेरा शहर हो गया, करूणा की चीख पुकारों से, गरीबी नहीं देखती महामारी, मंदिर छोड़ भगे अस्पतालों में।। https://likeshthakur.blogspot.com

याद करों कुर्बानी

अंग्रेजों से लड़ भिड़े,वो इंकलाब की वाणी, भगत सिंह राज सुखदेव की,तुम याद करों कुर्बानी। देश भक्ति की भट्टीयों में,तपी उनकी जवानी, वादे प्यासी मोहब्बतों के,सूनी किसी की धानी*। बालपन से वीर रसों का,रगो में बहती रवानी, ऐसे महान वीरों की,तुम याद करों कुर्बानी। क्रांति की मशाल जलाकर,तोड़ी ग़ुलामी की जाली। अंग्रेजों की छक्के छुड़ा दी,वो इंकलाब की वाणी। संसद की गूँज ने,गोरों को हिला डाली, ना डरे ना भागे,देशभक्त थे बड़े अभिमानी। नरसंहार जालियांवाला का,हिलोरें लेती डाली, रंजिशों के बादलों ने,क्रांतिकारी बना डाली। निडर अविचल इरादे,तन मन थे फौलादी, भगत राज सुखदेव की,तुम याद करों कुर्बानी। गूँगी बहरी अभेद्य दीवारें,तोड़ उन्होंने डाली, भारत माँ के सपूत थे,वो इंकलाब की वाणी। देशप्रेम के ख़ातिर मौत को,हँसते गले लगा ली, भगतसिंह राज सुखदेव की,तुम याद करों कुर्बानी।। कवि लिकेश ठाकुर *धानी-रंगीन दुपट्टा

होली खेलों रसिया मेरे

होली खेलों रसिया मेरे, अबीर गुलाल लगाओ, महक उठे तन मन मेरा, आहिस्ता रंग उड़ाओ। दुप्पटा मेरा रंग जाये, मन भर खूब नचाओ। होली में संग नाचे गाये, सुर में सुर थोड़ा मिलाओ। पँछी मैं हूँ इस कुटिया की, फ़ूर से मैं उड़ जाऊं। नये नवेले कपड़ों में तुम, रँग तुम गहरा लगाओ। होली खेलों रसिया मेरे, अबीर गुलाल लगाओ। तोड़ के सारी जंजीरों को, आज़ाद पँछी सा इतराओ। इत्र सी महकू मैं महफ़िल में, मदमस्त रंग मुझ पर बरसाओ।। ✍️लिकेश ठाकुर

प्रेम

प्रेम, मधुर संगीत का अनकहा गान हैं। दिल, में उतर जायें तो,यहीं इक संसार हैं। आँखों, की गुस्ताखियों से उड़ता हुआ ग़ुबार हैं। मन, की चाहतों में,तन का पूरा सिंगार हैं। रूह, की परछाइयों में,दिखता आर-पार हैं। ओठो, की सुर्ख़ लाली,बारिश सी फुहार हैं। कमर, की लचकन में,आकर्षित यहीं चाल हैं। प्रेम, मधुर संगीत का अनकहा गान हैं। केश, लताये रूपी,अहसासों का जाम हैं। धरा, की मिट्टी में,तुझसे ही तो जान हैं। पँछी, उड़ते नभ में,कोयल सी मधुर गान हैं। पैरों, में खनकती पायल,झुल्फों की घनी छांव हैं। प्रेम, मधुर संगीत का अनकहा गान हैं।। ✍️लिकेश ठाकुर  

आ गया फाल्गुन का महीना

आ गया फाल्गुन का महीना, खिलने लगे टेसू के फूल, पेड़ों से टूट पत्ते गिर रहे, कलरव कर रहे पँछी खूब। रिश्तों में बंध रहे गुड्डे गुड़िया, जुड़ते लोग हैं दूर सूदूर। माँ बाबा की लाड़ो बेटी, जा रही अब अपनों से दूर। बसंत बहार पत्ते हिलोरें लेते, सूरज की रोशनी छायी भरपूर। रंग बिरंगी दुनिया मुस्कुराती, बनकर अनजान दुखों से दूर। भौरें मधुमक्खी करते गुँजन, तितलियों का अब दिखे समूह। मिल जाये बच्चों की टोली, तन पर सनी सड़कों की धूल। बहुत दिनों बाद दादी नानी से, सुनते बच्चे कहानी भरपूर। कोई चढ़ता पेड़ों पर बन बंदर, कोई खाता आँवले आमचूर। बिन बस्ता मौज मस्ती में, ज़िन्दगी लगती बहुत कूल। कुछ दिन बिताए अपनों संग, टेंशन की बत्ती हो जाती गुल। आ गया फाल्गुन का महीना, खिलने लगे टेसू के फूल।। ✍️कवि लिकेश ठाकुर