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भारत के गांवों शहरों में

भारत के गांवों शहरों में,सपनो को बुनते देखा है। बिन स्वार्थ इंसान को,देश के लिए जीते देखा है। वो न मांगे घर भरने को,उधार चुकाते देखा है। सच्ची मेहनत लगन से,दिन रात जागते देखा है। आजकल नारी शक्ति को,बॉर्डर में रहते देखा है। बदल रहा है अब वतन,जय हिंद कहते सुना है। धर्म निरपेक्ष का सपना,लोगों को बुनते देखा है। ना ख़ौफ़ किसी गर्दिशों से,आतंक से लड़ते देखा है। लड़ते रहो आपस नेता,लोगों को बदलतें देखा है। कितना भी भड़के हिंसा,लोगों को गले मिलते देखा है। भारत के गाँवो शहरों में,सपनो बुनते देखा है।।               लिकेश ठाकुर

ज्ञान प्रकाश की मूरत शिक्षक

ज्ञान प्रकाश की मूरत          शिक्षक ज्ञान प्रकाश की मूरत को, शत-शत नमन हमारा। बच्चों के भावी भविष्य को, शिक्षक ही सजाता है। उचित अनुचित फर्क को, शिक्षक हमें बताता। शिष्यों को सही शिक्षा, शिक्षक ही दे पाता है। उच्च शिखर पर शिष्य को, शिक्षक ही चढ़ाता। बच्चों के भविष्य में, नई रोशनी लाता है। शिष्य को हरपल शिक्षक जीने की राह दिखाता। असफल होते जब काम मे, अफ़सोस भी जताता। सभी गुणों से पूरित गुरुवर, जलता खुद हमें बचाता। सफलता की नई मंज़िल में, चढ़ना भी सिखाता। दीपक जैसा जलता लेकिन, आईना समाज को दिखाता। त्याग की मूरत धरती में, नभ सा छा जाता है। ज्ञान प्रकाश की मूरत को, शत-शत नमन हमारा। बच्चों के भावी भविष्य को, शिक्षक ही सजाता है।।        ✍🏻 कवि/शिक्षक            लिकेश ठाकुर सभी शिक्षक को समर्पित📚

कोरी महज अफवाहें थी

*कोरी महज अफवाहें थी* कोरी महज़ अफवाहें थी, खुली परते देर से। अफ़सानों की पोल खुल गई, चालाकी के फेर में। नब्बे फीसदी लौट आ गई, काली थी सफ़ेद में। कीमतें आसमां को छू रही, डॉलर के कहर में। चुनावी लहर खूब चलेंगी, सत्ता दल के ढेर से। मतभेद दोषी हवाएं, नेताओं के जेब में। पेट्रो डीज़ल कीमतें भारी, लालच है शहर में। कुछ के दाम ऊँचे नीचे हो गए, गरीब बेचारा घेर में। काला-पीला हुआ सफेदी, खुली परते देर से। अच्छे काम करते जो नेता, टांग खिंचते गढर में। झूठे आश्वासन लूटती जनता, विश्वास के फ़रेब से। वादे सिर्फ महज घोषणा थी, कागज के महल से। रोड देखो अमेरिका हो गई, गड्ढे गूगल के मैप में। रोटी सिक अपनी रही थी, किसान बैठा आस से। बेरोजगार की लाईन लग गई, शताब्दी जैसी ट्रेन में। घोटाले व्यापमं ज़मीदोजी, शोर दबी जोर से। फॅसे कुछ निर्दोष हुए बरी थे, धन शिक्षा के खेल से, अनपढ़ देखो अफसर बन बैठे, दौलत शोहरत के मेढ़ में। लूटती आबरू सिसक रही थी, आशीर्वाद कुर्ते के भेष से। अपराधों में न लगे अंकुश, छिपे ओढ़े चादर में। कोरी महज अफवाहे थी, खुली परते देर से। अफ़सानों की पोल खुल गई, चाल