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दिल पर क्या गुज़रती है

दिल पर क्या गुज़रती है दिल पर क्या गुज़रती है, कोई साथ छोड़ जाता हैं। सपनें जैसा लगता सब, कोई अपना खो जाता हैं। तीव्र दिल की धड़कन थमे, जब याद वो कभी आता है। दिल पर क्या गुज़रती है, अपना कोई दगा दे जाता हैं, मीठे-मीठे बोल हुये कड़वे, जब क़रीब कोई आता है। सच के पर्दे में बैठा हुआ, छदम चरित्र दिखा जाता है। दिल पर क्या गुज़रती है, कोई विश्वास तोड़ जाता है। हम समझ बैठते उसे नादान, गिरगिट सा रंग दिखा जाता। ठोकरें खाकर हम मानव को, कुछ समझ नहीं आता है। अंधविश्वास कर बैठे हम, आस्तिन का साँप डस जाता हैं। दिल पर क्या गुज़रती है, बुराई पीठ पीछे करता है। सामने तो जब बने सारथी, अर्थी का इंतजाम करता हैं। एक दूजे की साझेदारी पर, अविश्वास हरपल करता हैं। दिल पर क्या गुज़रती है, कोई अपना रूठ जाता है। मनाने के पूरी कोशिश में, साथ जो हैं छूट जाता है। कितनी भी हो गैर शिकायतें, वापस कोई नहीं आता है।। ✍️कवि लिकेश ठाकुर

सैलाब

सैलाब बाढ़ के सैलाब में, घरोंदे उजड़ चले। बादलों की गड़गड़ाहट से, पँछी बिछड़ चले। डूबते तिनके की तरह, जन-धन डूब चले। मंजर देखों ख़ौफ़ का, लोग घरौंदा छोड़ चले। सैलाबों के दौर में, जात-पात भूल चले। ढूंढे छत मस्जिद में, मंदिर की ओर चले। इंसानियत की खोज में, अब कफ़न ओढ़ चले। बाढ़ के सैलाब में, घरोंदे उजड़ चले। महंगी कीमती गाड़ियों में, कीचड़ छोड़ चले, सड़कों के आँचल में, कश्ती की होड़ लगे। सड़कों के घाव पूरने में, बस पानी छोड़ चले। भोजन की तलाश में, झोपड़ी की ओर चले। मिट गयी ये दूरियां, गरीब-अमीर साथ चले, आज़ाद गगन के छांव में, इंसान एक हो चले। बाढ़ के सैलाब में, घरोंदे उजड़ चले।। ✍️कवि लिकेश ठाकुर