इन जूतों ने बहुत सहा हैं
इन जूतों ने बहुत सहा हैं,
रास्तों का अपमान भी,
लगे पत्थर ठोकरें जब,
टूटे बहुत अरमान भी।
चलना निःसन्देह पथ पर,
जुदा हो अगर ख़्वाब भी,
पलकों ने झुकके देखा होगा,
परतों के गहरे घाव भी।
इन जूतों ने बहुत सहा हैं,
रास्तों के अपमान भी।
सही दिशा में चल पड़ा,
राही का अभिमान भी,
रूक गया यदि राहों पर,
होगा मेरा उपहास भी।
सुना हैं चमकते जूतों पर,
मोतियों का साथ भी,
जड़ जाएँ मनका इस पर,
लाखों में खास भी।
रंग बिरंगा मेरे साया,
सबका मिले प्यार भी,
फट जाऊं आधे पथ पर,
सड़क किनारे उतार दी।
मैं झुलसा खुद से खुद,
वार्डरोब की आग भी,
जिसके पग में चढ़ जाऊं,
अनंत मिले सम्मान भी।
इन जूतों ने बहुत सहा हैं,
रास्तों का अपमान भी।
खुली निगाहें मुझ पर टिकी,
पृष्ठभूमि ना नाम भी,
जिसके सिर पड़ जाऊं,
मृत्यु से बड़ा अपमान भी।
मैं कवच हूँ पैरों का,
काँटे न चुभे कंकाल भी,
इन जूतों ने बहुत सहा हैं,
रास्तों का अपमान भी।।
@कवि लिकेश ठाकुर
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