मन के रावण को आज तक

पुतलों के ही दहन का,
बढ़ने लगा रिवाज।
मन के रावण को आज तक,
जला न सका समाज।
अत्याचार की आँधी से,
बच न सका इंसान।
लोहित शस्त्र से ख़ुद को,
मारने लगा ईमान।
सच्ची घटना अनजान कर,
फैला रहा अंधविश्वास।
मन के मर्म को मार कर,
आगे बढ़ने लगा इंसान।
संकीर्ण सोच आग़ोश कर,
करने लगा भेदभाव।
मन के रावण को आज तक,
जला ना सका समाज।।
✍️लिकेश ठाकुर

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