ये ढ़लती शाम हैं

ये ढ़लती शाम हैं,

विस्मृत कर देती,
इन दिनों की कुछ तस्वीर,
दिल में चुभें खंजर,
अदृश्य समंजित तीर।
फिर भी बड़े शिद्दत से,
ये ढ़लती शाम हैं।

कोने में बैठ कुछ सोचने लगे,
वक़्त के साये में,
कुछ खोजते हुए,
अब तो अपने अपने हो गये,
पूरे दिन-रात के लिए।
बड़ी बेचैनी से अब,
ये ढ़लती रात हैं।

भागम भाग हमनें किये,
थोड़ा ठहरे दिखे आज,
रुखसत होकर अपनों से,
मिलने को तरसते रहे।
कब हटेगी पाबंदियां,
पूरी रात के लिये।
अधूरी ये अंधेरी रात,
गमों की बरसात हैं।
महफ़िल बहुत सूनी हैं,
ये ढ़लती शाम हैं।
*रुखसत-अलग 
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