पुष्प खिले उपवन में

पुष्प खिले उपवन में,
शोभित लिये नवनीत,
आशा और निराशा में,
इंसान हो रहा भयभीत।

धैर्य कर्म के पथ पर,
विचलित करें अतीत।
वर्तमान को धारण कर,
जीवन चिंतन में कर व्यतीत।

जैसे होते मास पखवाड़े,
दुख सुख की यहीं रीत,
खुद से ही क्यों हारे,
मन को क्यों करें व्यथित।

मालूम हैं चाँद निकलेगा,
रातों से उसे है प्रीत,
कोमल कलियाँ खिलेगी,
गूँजेगा पँछीयों का संगीत।

मधुर कोयल की आवाज,
प्रकृति हरित सृजित,
किरणों का भूमि पर,
तीर्व मद्धम आरोपित।

लहरों में नौकाओं का,
हवाओं का रूख मंदित,
पहुंच सकें पुनः तट पर,
पतवारें सह उत्साहित नीर।

प्रवाह प्रेम अनुराग का,
सबको हो अहसास प्रतीत,
एकदूजे हम साथ रहे,
हो मानव से मानव का मीत।

मनभेद व्यर्थ विकार को,
हम प्रबलता से करें निरसित।
वक़्त अब कैसा भी रहे,
बस आपस में ना हो प्रतीप।
✍️लिकेश ठाकुर

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