हरी घास की चादर ओढ़े

हरी घास की चादर ओढ़े,
प्रकृति कर रही श्रृंगार।
नीला अम्बर साफ स्वच्छ,
नवसृजन का होगा यह साल।

स्वतंत्रता महसूस कर रहे,
यहाँ पँछी और समाज।
धर्मभेद तो सत्ता खेल था,
हम तो शतंरज की बिसात।
ख्वाहिशें तो बस लड़ाने की,
चुप्पी अब साध बैठे जनाब।

खुदा का आलय बंद पड़ा,
खुला मधुशाला का द्वार।
छीन गए गरीबों के सपनें,
लौट आए अब अपने गांव।
गाँवों में मेरा भारत बसता हैं,
कर्जयुक्त मरे अन्नदाता किसान।

शुद्ध हवा करती अठखेलियाँ,
पवन चले अब सरसराहट,
बादलों का मार्ग न विचलित,
हिमालय में दिखे किरणें अपार।
अब सनातन संस्कृति लौट आयी,
सतत उन्नति से विश्व कल्याण।

हरी घास की चादर ओढ़े,
प्रकृति कर रही श्रृंगार।।
✍️लिकेश ठाकुर

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