कोरी महज अफवाहें थी
*कोरी महज अफवाहें थी*
कोरी महज़ अफवाहें थी,
खुली परते देर से।
अफ़सानों की पोल खुल गई,
चालाकी के फेर में।
नब्बे फीसदी लौट आ गई,
काली थी सफ़ेद में।
कीमतें आसमां को छू रही,
डॉलर के कहर में।
चुनावी लहर खूब चलेंगी,
सत्ता दल के ढेर से।
मतभेद दोषी हवाएं,
नेताओं के जेब में।
पेट्रो डीज़ल कीमतें भारी,
लालच है शहर में।
कुछ के दाम ऊँचे नीचे हो गए,
गरीब बेचारा घेर में।
काला-पीला हुआ सफेदी,
खुली परते देर से।
अच्छे काम करते जो नेता,
टांग खिंचते गढर में।
झूठे आश्वासन लूटती जनता,
विश्वास के फ़रेब से।
वादे सिर्फ महज घोषणा थी,
कागज के महल से।
रोड देखो अमेरिका हो गई,
गड्ढे गूगल के मैप में।
रोटी सिक अपनी रही थी,
किसान बैठा आस से।
बेरोजगार की लाईन लग गई,
शताब्दी जैसी ट्रेन में।
घोटाले व्यापमं ज़मीदोजी,
शोर दबी जोर से।
फॅसे कुछ निर्दोष हुए बरी थे,
धन शिक्षा के खेल से,
अनपढ़ देखो अफसर बन बैठे,
दौलत शोहरत के मेढ़ में।
लूटती आबरू सिसक रही थी,
आशीर्वाद कुर्ते के भेष से।
अपराधों में न लगे अंकुश,
छिपे ओढ़े चादर में।
कोरी महज अफवाहे थी,
खुली परते देर से।
अफ़सानों की पोल खुल गई,
चालाकी की फेर में।।
🖊 *युवा कवि*
*लिकेश ठाकुर*
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