अपनी ढपली अपना राग

यहाँ धर्मभेद मनभेद में,पिसता हुआ इंसान,
बिकता मिट्टी के मोल,यहाँ लोगों का ईमान।
 चार दिन की चाँदनी,बैर ईर्ष्या अभिमान,
 चापलूसी के शौकिया,यूहीं भरते कान।
मूल्यों का होता अपघटन,छलावा मान सम्मान,
भीतर से थोड़े खोखले,वाणी से निकले बान।
नोटों की गिड्डीओं से बचती,यहाँ कीमती जान,
देख हालात सोजे वतन की,यहाँ हर कोई  हैरान।
अपना तकिया सिलते,अपनी ढपली अपना राग,
साफ सुथरे चरित्र में,लालच का लगा गहरा दाग।
✍️लिकेश ठाकुर 
स्वरचित एवं मौलिक रचना

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

हर लम्हा तुझे पुकारूँ

इस जीवन की

गैरों की महफ़िल में