मैं ऐसा ही बन जाऊं

मैं ऐसा ही बन जाऊं,,,

मन प्रसन्न रहे दीर्घ पीड़ा में,नित्य सुलझ मैं पाऊं,
बिखरे विचार अंतर्मन में,मैं सृजित हो जाऊं।
सागर सा स्थिर मन हो,नदियाँ सा मैं बहता ही जाऊं,
पहाड़ों सा खड़ा पथ पर,कभी पग को न डगमगाऊ।
मैं ऐसा ही बन जाऊँ,,,
मधुर सी मुस्कान चेहरे पर,उलझन में मन को हर्षाऊँ।
खुद में उमंगी जोत जला कर,दीपक सा बन जाऊँ।
गम की लहरों से लड़ कर,खुशियों में मदमस्त मैं बलखाऊँ,
आँधियों में स्थिर रहकर,अनचाहे तूफानों से मैं लड़ जाऊँ।।
मैं ऐसा ही बन जाऊँ,,,
लिकेश ठाकुर
स्वरचित 

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