थक हार रहा बुढ़ापा

थक हार रहा बुढ़ापा

मन थोड़ा बच्चा सा हो गया,
अपना भी हुआ पराया।
चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी,
थक हार रहा बुढ़ापा।
दौड़ भाग की ज़िन्दगी जीये,
सुख चैन न कोई सहारा।
बचपन और जवानी तक,
बच्चों को गोद में पाला।
देखो! बेटा बाप हो गया,
थक हार रहा बुढ़ापा।

भौतिकता का स्वाद फैल गया,
बनावटी हुआ जमाना।
मतभेद अब अहं हो गया,
अपना भी हुआ बेगाना।
उम्मीदों की किरण खो रही,
आँखों में स्वप्न सजाना।
आधुनिकता का स्वांग रचाये,
थक हार रहा बुढ़ापा।

बहू बेटे की अहसानी बातें,
यूँही निभाते चला नाता।
भरने में झोली जीवन
गवाया,
कुछ खोया तो कुछ पाया।
ज़िन्दगी तू इतनी आसान नहीं,
बड़ी गजब है तेरी माया।
अनुभव की बातें बोझिल होकर,
थक हार रहा बुढ़ापा।


जीने की तमन्ना लिए दिल में,
कठिन डगर पर न हारा।
जब-जब लड़खड़ाये कदम,
तब-तब बच्चों का हाथ मैंने थामा।
माँ की गोद पिता का आश्रय,
यादों का सर्वश्रेष्ठ खजाना।
मन थोड़ा बच्चा सा हो गया,
याद आता बीता हुआ जमाना।
चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी,
थक हार रहा बुढ़ापा।।
✍️लिकेश ठाकुर

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