जरूर है
बदल रही ये ज़िन्दगी,
भारवाहक हम थे,
कुछ दिनों में बहुत से,
गम के सिलसिले थे।
सोच के मनन विचार के,
अंर्तमन में झांक के।
सूनी पड़ी थी गलियां,
सूने पड़े थे बरामदे।
कुछ पल यहाँ ठहरने का,
ना था अपने पास समय,
आज वो वक़्त आ ही गया,
बैठें हम उस बरामदे।
कोयल की कू-कू को,
कभी सुनने तरसते।
बैठें अब अपनों के संग,
आज है खिलखिलाते रिश्ते।
कोई न कड़वाहट है,
गम की ना कोई आहट हैं।
सिमट गई अपनी ज़िन्दगी,
सूना पड़ा हर फुटपाथ हैं।
गैर भी अब देखने को,
पल-पल हमें तसरते।
अब राहों को भ्रम नहीं,
इनसे कोई नहीं गुज़रते।
फ़ासले सबके दरम्यान,
इक होने को मजबूर है।
आकाश भी अब सोचता,
हवाओ में शुद्धि पुरजोर हैं।
पँछी का मात्र कलरव,
अब सुनाई देता चारों ओर हैं।
सूरज की किरणें भी,
बिखरने को व्याकुल हैं।
चाँद भी बड़े मस्ती में,
रोशनी अब नवांकुर हैं।
बदल रहा अब जमाना,
अब हमें बदलना जरूर हैं।
चलती धूल आँधियों से,
अब हमें टकराना जरूर है।
✍️कवि लिकेश ठाकुर
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