वजह कुछ भी नहीं थीं

वजह कुछ भी नहीं थी,ज़िंदगी यूँ ही रूठी थी।
कुछ पाने की चाहत में,मैंने बहुत राते जगी थी।
अपनों को खोते देख,सपनों से करी दोस्ती थी।
निभाते चले रिश्ते,कुछ रिश्तों की डोर कच्ची थी।
वजह कुछ भी नहीं थी,ज़िंदगी यूँ ही रूठी थी।
ख़ुद से लड़ते-लड़ते,कहीं मेरी हस्ती खो चुकी थी।
निकले थे अनजान सफ़र में, ख़ुदसे दोस्ती हो चुकी थी।
गिरि के तरह डाटे थे,मदहोश आँधी चल रही थी।
अंबर में काली घटाएं,प्रभा सी चमक रही थी।
कोई यहाँ अनुज सखा,तरु की छांव मिल रही थी।
वजह कुछ भी नहीं थी,ज़िंदगी यूँ ही रूठी थी।
बसन्त के मधुर बहारों में,कुछ कलियां खिल रही थी।
बारिश की भीगीं रातों में,बिजली कड़क रही थी।
तरकस से निकला तीर,कुछ ज़िंदगी सीखा रही थी।
बेवजह की उलझनों में,मेरे मन को फंसा रही थी।
कभी दिन के उजालों में,यूँही सपनें दिखा रही थी
वजह कुछ भी नहीं थी,ज़िंदगी यूँ ही रूठी थी।
✍️रचना-लिकेश ठाकुर
*गिरि-पर्वत
*प्रभा-प्रकाश
*अनुज-भाई
*सखा-दोस्त
*अंबर-आकाश
*मेघ-बादल

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

हर लम्हा तुझे पुकारूँ

इस जीवन की

गैरों की महफ़िल में