रूठी चाँदनी को मैं मना लू

ये ढ़लती हुई शाम!
रुक जरा तू,
कुछ अधूरे काम निपटा लू,
आकर तेरे आग़ोश में,
थोड़ा ठहर मैं मुस्कुरा लू।
चाँद निकलने को बेकरार,
रूठी चाँदनी को मैं मना लू।

जाने दे बिंदास पँछी को,
दिल के कोने में महफ़िल सजा लू।
रक्त वर्णीत रंगीन फ़िज़ाओं में,
रूठी चाँदनी को मैं मना लू।

ये ढ़लती हुई शाम!
बहुत मोहब्बत करती तू चाँद से,
ढलने को इतनी बेकरार तू।
रुक जा अब थोड़ी देर तू,
तेरे लिए रोशन इक़ जहां बना दू।
थोड़ी तपिस झीलों की ठंडक में,
रूठी चाँदनी को मैं मना लू।।

मन के तहखाने में समायी,
कुछ यादों को साथ लाऊं।
मैं हर रोज़ करूँ रब से ईबादत,
सुर्ख़ आँखों से ख़्वाब सजाऊँ।
रूक कुछ देर,मिलने की चाहत हैं,
रूठी चाँदनी को मैं मना लू।।
 ✍️लिकेश ठाकुर

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