सैलाब
सैलाब
बाढ़ के सैलाब में,
घरोंदे उजड़ चले।
बादलों की गड़गड़ाहट से,
पँछी बिछड़ चले।
डूबते तिनके की तरह,
जन-धन डूब चले।
मंजर देखों ख़ौफ़ का,
लोग घरौंदा छोड़ चले।
सैलाबों के दौर में,
जात-पात भूल चले।
ढूंढे छत मस्जिद में,
मंदिर की ओर चले।
इंसानियत की खोज में,
अब कफ़न ओढ़ चले।
बाढ़ के सैलाब में,
घरोंदे उजड़ चले।
महंगी कीमती गाड़ियों में,
कीचड़ छोड़ चले,
सड़कों के आँचल में,
कश्ती की होड़ लगे।
सड़कों के घाव पूरने में,
बस पानी छोड़ चले।
भोजन की तलाश में,
झोपड़ी की ओर चले।
मिट गयी ये दूरियां,
गरीब-अमीर साथ चले,
आज़ाद गगन के छांव में,
इंसान एक हो चले।
बाढ़ के सैलाब में,
घरोंदे उजड़ चले।।
✍️कवि लिकेश ठाकुर
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