पेंसिल
पेंसिल
लिखकर में मिट जाती,
मुझे बात समझ न आती।
लम्बी मेरी कद काठी,
आखिरी में बौनी हो जाती।
साफ सुथरी मेरी थाती,
पैनी नोंक से लिख जाती।
मोटे बारीक़ अक्षर बनाती,
रंग बिरंगे रंगों में ढालती।
किसी के सपनों को संजोती,
पेंटिंग जब दिल से होती।
बच्चों बड़ो के हाथ में होती,
बनठन के मैं इठलाती।
चित्रों के साये को बुनती,
चलती जल्दी किसी की न सुनती।
लिखकर मैं मिट जाती ,
मुझे बात समझ न आती।।
कवि
लिकेश ठाकुर
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