सँभल कर चलना सीख रहा

    *सँभल कर चलना सीख रहा*

संभल सँभलकर चलना सीख रहा, यह कपटी जमाने में।
पल में रोते हँसते कुछ नेता यहाँ,बेगानो के जनाजो में।

उतदंड भीड़ आक्रोशित जन,लगता समय मनाने में।
खुश रह सकता पास है जितना,खुशियों को जताने में।

महाभारत का युद्ध की जैसी,चली रैली राजधानी में।
संघर्षों की ताबीज़ पहनें,कुछ नेता लगे भड़काने में।

ना समझ अज्ञान अंधर्विश्वासी जनता,नए इस जमाने में।
घाव घृणा का घूट पीकर, लगे वोट भुनाने में।

जी जी भईया वादा करते, चौखट के तलखाने से।
आधा पूरा कार्यकाल बीत गया,झूठा उत्साह जताने में।

दीपक की लौ बुझी पड़ी है,कई बस्ती कॉलोनी में।
धनकोष भरपूर निधि को,भरने लगे चुप झोली में।

खुदी हुई सड़कें नाले,भरने लगे बरसातों में।
दुःखद घटना हो जाये तो, आते शोक जताने को।

ऊँचे-ऊँचे वादे करके, हो गए मिले जन जमाने से।
अंधत्व की परछाई छा गईं, भ्रष्टों के घरानों में।

सँभल सँभल कर चलना सीख रहा,यह कपटी जमाने में।
पल में रोते हँसते कुछ नेता यहाँ, बेगानों के जनाजो में।
              युवा कवि
           लिकेश ठाकुर

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